यह मेला आदिवासियों का एक बड़ा मेला है। ‘बनेश्वर’ का अर्थ है ‘डेल्टा का मास्टर’ जो शिव लिंग से प्राप्त हुआ है। जिसकी पूजा डुंगरपुर के महादेव मंदिर में की जाती है। यह एक धार्मिक मेला है जिसमे सीधे-साधे और पारंपरिक रीति-रिवाज किये जाते है। भील के आदिवासी पड़ोसी राज्य मध्य प्रदेश और गुजरात से आते हैं और भगवान शिव की पूजा करते है। इस मेले में बड़ी मौज और मस्ती की जाती है लोकल सामान बेचा जाता है। मेले में लोक नृत्य, जादू का खेल, पशुओं का खेल, एरोबेटिक्स और मस्ती भरे गाने चारों ओर गुंजते है।
उत्साह को और बढ़ाने के लिए मैरी-गो-राउंड झूला भी है। मेघ शुक्ल की एकादशी पर, पुजारी जिसे मथाधीश कहा जाता है, जो सबला से जुलुस में आते है। एक 16 इंच घोड़े पर सवार भावजी की चांदी की मूर्ति भी यहां लायी जाती है। मथाधीश के स्नान करने से नदी का जल कथित रूप से पवित्र हो जाता है इसलिए लोग भी उनके साथ नदी में स्नान करते हैं भील नदियों के संगम पर मृतकों की अस्थियों का विसर्जन करते हैं।
भील बनेश्वर मेले में आग जलाकर रोज रात को उसके चारों ओर बैठते ऊंची आवाजों में पारंपरिक लोक संगीत गाते है। कुल के युवाओं द्वारा सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किया जाता है। ग्रामीण लोगों के समुहों को भी इस आयोजन में आमंत्रित किया जाता है।
बनेश्वर महादेव मंदिर 5.00 बजे से 11.00 बजे तक खुलता है। बनेश्वर मेले के दौरान भक्त गेहूं का आटा, दाल, चावल, गुड़, घी, नमक, मिर्च, नारियल और नकद दान देते है। मंदिर में गाने, लोक नृत्यों, जादूई शो, पशु शो और एक्रबैबेटिक फीट्स के साथ मेले का प्रतीक है।